तसर रेशमकीट की प्रजातियाँ
डॉ. ए. के. श्रीवास्तव एवं डॉ. एम. के. सिन्हा
रेशमकीट बीज प्रजनन व आनुवंशिकी प्रभाग,
के. त. अ. व प्र.सं., राँची
सर्वप्रथम वन्य तसर रेशम शलभ का वर्णन लिनाइस (1758) ने फेलेना बॉम्बिक्स पेफिया के तौर पर किया जिसे बाद में फेलेना एटेक्स पेफिया के रूप में जाना गया । ड्रूरी (1773) ने फेलेना एटेक्स माइलिट्टा का वर्णन किया जबकि हब्नर (1850) ने एन्थीरिया की पहचान की । कोट्स एवं स्वीन्हो (1887-89) ने एन्थीरिया माइलिट्टा के साथ माइलिट्टा ऑफ ड्रूरी को समाहित किया ।
उपलब्ध जानकारी से यह स्पष्ट है कि ए.माइलिट्टा का प्रजनन यूरोप में 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ जबकि विशिष्ट एन्थीरिया माइलिट्टा एशिया महादेश में पायी जाती है । इसमें एक ही तरह की कई प्रजातियां हैं । कई प्रजातियों को विशिष्ट प्रजाति माना जाता है, यद्यपि वे स्थानीय प्रजाति हैं यथा ए. फेसियेटा मूर, ए.बर्जिकलर मूर,ए. पुलक्रा मूर एवं ए.आक्रीपिकाटा मूर । परिवर्तनीय रूप की वजह से इसे कई नामों से जाना गया (कोटस 1889 ; कोटस एवं स्वीन्हो 1889) । उदाहरणार्थ टसर=ए.माइलिट्टा (हब्नर वाकर मूर, आरविलियस वार्डल, रैनडॉट एवं कं.) = फेलेना (एटेकस) माइलिट्टा (ब्लंच) बॉम्बिक्स माइलिट्टा (फेबर एवं ऑलिव) = फेलेना पेफिया (क्रेमेरा रॉक्सवर्ग) = ए.पेफिया (मूर व बेवन) = सेटर्निया माइलिट्टा (वेस्टवुड), सेटर्निया पेफिया (हेल्फर 1937) उपर्युक्त के अलावा जिन्हें समान प्रजाति माना गया है, उसमें हटन (1865) ने ए नेबुलोसा को विशिष्ट) प्रजाति बताया जो छोटानागपुर एवं मध्य एशिया में पायी जाती है जिसका वर्णन मूर (1882-83) ने किया तथा जिसे ए.सिंगलेसा के नाम से जाना गया । हैम्पसन (1933) ने ए. सिवेलिका एवं ए.पैटर्ना को ए.पेफिया के समान बताया था जैसा कि सिंह एवं श्रीवास्तव (1997) के द्वारा भी बताया गया । क्रोच (1956) के अनुसार ए.पेफिया को ए.माइलिट्टा से अलग करना बहुत मुश्किल है जबकि सीज (1933) ने बताया कि ए.पेफिया अत्यधिक परिवर्तनीय कीट है । यद्यपि रिकार्ड से यह ज्ञात होता है पेफिया एवं माइलिट्टा मध्य भारत में दो अलग प्रजाति के रूप में अस्तित्व में है । प्रकृति में अप्रत्यक्ष रूप में सदियों तक प्रजनन की वजह से इन दो प्रजातियों में अंतर स्थापित करना मुश्किल है (जॉली एवं अन्य 1968 एवं 1974) ।
सुस्लर (1933) ने ए.पेफिया की तीन उप-प्रजातियों नामत: ए.पेफिया पेफिया (लिंन) ए.पेफिया माइलिट्टा ड्रूरी एवं ए.पेफिया सिंगलेसा मूर को सूचीबध्द किया । ए.पेफिया माइलिट्टा भौगोलिक प्रजाति के रूप में ए. पेफिया से अलग है जैसा कि सीज (1928) ने भी स्वीकार किया एवं यह टिप्पणी दी कि माइलिट्टा पेफिया के बिल्कुल समान है । दक्षिण भारत एवं श्रीलंका से संग्रहित नमूनों का अरोरा एवं गुप्ता के द्वारा अध्ययन (1979) करने पर यह ज्ञात हुआ कि ये सामान्य रूप-रंग आदि में भारत के अन्य भागों से संग्रहित नमूने से मिलते-जुलते हैं । परीक्षणों से यह भी इंगित होता है रूप-रंग में काफी विविधता भी पायी जाती है । लेफ्रॉय (1909) ने इसका कारण प्रजाति का संकरीकरण बताया । यह विविधता एक क्षेत्र के विशिष्ट( समुदाय को दूसरे क्षेत्र के समुदाय से अलग करने के लिए अपर्याप्त है । अत: यह उचित है कि ए.पेफिया के रूप में वर्णित प्रजाति को अब तक ज्ञात उप-प्रजातियों से अलग नहीं माना जाना चाहिए । रूप संरचना के नये पहलुओं नामत: परिपक़्व लार्वों में सुप्रा स्पाइरेकुलर स्ट्राइप की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति के आधार पर नासिग (1991) ने एन्थीरिया कुल के पुन: वर्गीकरण करने का प्रयास किया । हब्नर (1819) के द्वारा समूह (पेफिया/फ्रिथी ग्रुप) को कमजोर अथवा अपेक्षाकृत प्लेसियो मॉरफिक गुण-लक्षण वाला बताया गया । जॉली एवं अन्य (1974) ने बताया कि यूरोप में ए.पेफिया एवं ए.माइलिट्टा के आयातित कोसों में अत्यधिक विचलन एवं परिवर्तन दिखायी पड़ता है । इस प्रकार रूप-संरचना के आधार पर नामाकरण के औचित्य के सम्बन्ध में उन्होंने संदेह प्रकट किया ।
लगभग एक सदी से अधिक समय तक उष्णकटिबंधीय तसर प्रजाति का अध्ययन अंतर प्रजातियों, उप-प्रजातियों, जातियों एवं एक ही प्रकार के भिन्न -भिन्न रूप संरचना वाली प्रजातियों के आधार पर किया जाता रहा है । वर्गीकरण करने वाले वैज्ञानिकों की जो भी मान्यताएं हों, यह स्पष्ट है कि ए.माइलिट्टा/पेफिया समुदाय विस्तृत भूभाग में फैला है । यह प्रजाति देश के भीतर ही नहीं अपितु अन्य देशों में भी पायी जाती है । भारत में यह प्रजाति हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, आसाम, मेघालय, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु एवं पांडिचेरी में पायी जाती है । उपलब्ध साहित्य से यह भी जानकारी मिलती है कि इसकी उपलब्धता पाकिस्तान, बंगलादेश, दक्षिणी चीन, नेपाल, बर्मा एवं श्रीलंका (अरोरा एवं गुप्ता, 1979) में भी है । इसके अलावा जम्मू व कश्मीर, दादर एवं नगर हवेली, मणिपुर, नागालैण्ड , उत्तर प्रदेश, केरल (श्रीवास्तव व अन्य, 2003) में पृथक समुदाय की उपलब्धता की जानकारी मिली है । विभिन्न भू-जलवायवीय स्थितियों में प्रजातियों के जीनोटाइप, फीनोटाइप, शरीर क्रिया एवं गुण-लक्षणों (श्रीवास्तव, 2003) में काफी विविधता आई एवं इस प्रकार सदियों तक भौगोलिक रूप से पृथक विभिन्न समुदायों ने एक खास पर्यावरण परितंत्र को अपना अधिवास बना लिया है जिसे पारि-प्रजाति कहते हैं । पारि-प्रजातियों में कोसा आकार, रंग की आकृति एवं भोज्य पौधा समूहों तथा अन्य गुणों में विविधताएं हैं तथा उन विविधताओं ने एक प्रकार से भिन्न -भिन्न अधिवास के अंतर को अनुकूलीकृत कर स्थायित्व प्राप्त कर लिया है (सिंह एवं श्रीवास्तव 1997) । इन विविधतापूर्ण पहलुओं का प्रजननकर्ताओं की दृष्टि से बहुत महत्व है तथा फसलों में सुधार के लिए विस्तृत अध्यपयन किए जाने की आवश्यकता है ।
विस्तृत भूभाग में ए.माइलिट्टा के फैलाव का गहन विश्लेषण करने पर यह ज्ञात होता है कि एक समय यह प्रजाति सम्पूर्ण भारतीय प्रायद्वीप में फैली हुई थी । कृषि योग्य भूमि में वृध्दि एवं वन कटाई तथा शहरीकरण की वजह से प्रजातियों के संकुचित अधिवास से इसकी निरंतरता समाप्त हुई है तथा भौगोलिक रूप से विलगाव की वजह से पृथक रूप से इसका अस्तित्व कई पीढ़ी तक बरकरार रहा एवं जीनोटाइप, फीनोटाइप एवं गुण-लक्षणों में एक प्रकार का स्थायित्व प्राप्त हुआ । एक खास प्रकार के पारिस्थितिक परितंत्र/क्षेत्र में विकसित गुण-लक्षणों में अंतर की वजह से एक ही प्रजाति का होने के बावजूद इसे पृथक इकाई माना गया है एवं इस प्रकार कई नामाकरण जैसे जाति, पारि-प्रजाति, पारि-समुदाय, पारि-प्ररूप इत्यादि (सिंह व श्रीवास्तव, 1997) किए गए । भौगोलिक रूप से पृथक समुदाय जिन्होंने एक खास पारिस्थितिकी तंत्र में अपने को अनुकूलीकृत कर लिया है, वे पारि-प्रजाति के रूप में जानी जाती है । वर्तमान स्थिति में पारि-प्रजाति शब्द, का प्रयोग लेखकों के द्वारा मेयर (1963) की परिभाषा के अनुसार किया गया है ।
के.त.अ. व प्र.सं., राँची के द्वारा अनुसंधानात्मक सर्वेक्षण कार्य करने के पश्चात् एक समूह परिक्षेत्र एवं 44 पारि-प्रजातियों की पहचान की गई । पारि-प्रजातियों के मुख्य गुण-लक्षणों का वर्णन निम्नवत् है :-